
कड़वी है, पर सच्चाई है। हम एक ऐसे समाज में रह रहें हैं, जहाँ “हीन” शब्द एक बहुत खास शब्द बन गया है। इस समाज में इंसान भावनाहीन एवं व्यथाहीन हो रहें और उनके विचार आधारहीन हो रहें। आजकल हम लोगों को उनके नाम से नहीं, बल्कि उनके नाम के पीछे जुड़े इस “हीन” शब्द से ही संबोधित करने लगें हैं कि कौन भावनाहीन है और कौन व्यथाहीन।
ऊपर लिखी कुछ पंक्तियों को पढ़कर आप शायद ऐसा सोच रहें होंगे कि मैं भी एक भावनाहीन एवं व्यथाहीन इंसान हूँ। लेकिन, सच तो यह है कि मैं हमेशा से ऐसा नहीं था। मैं भी अन्य लोगों की तरह सीने में दिल लेकर ही पैदा हुआ था। मुझे भी मेरे चाहने वाले लोग बड़े दिल वाला कहते थे। मैं भी कभी भावनाओं एवं प्यार से भरी हुई शख्सियत हुआ करता था। मेरे ज़िन्दगी में भी कुछ ऐसे चेहरे थे, जिनकी एक मुस्कान पर, मैं अपनी हर ख़ुशी कुर्बान कर देता था। जिस दिन मुझे यह एहसास हुआ कि जिन लोगों के लिए मैं पल-पल मर रहा हूँ, उनको मेरे दर्द से कोई सरोकार ही नहीं है, उसी दिन मेरे अंदर का इंसान मर गया और मैं भी उन सब की तरह ही कठोर, स्वार्थी और मतलबपरस्त हो गया। अब मुझे भी समझ आ गया था कि आपको लोगों के बारे में ज्यादा क्यों नहीं सोचना चाहिए।
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मुझे यह समझने में सालों लग गए कि जिनको मैं अपना समझ रहा हूँ, वो ही मेरी आस्तीन के सांप हैं। लेकिन, आज मैं यह नहीं कहूंगा कि उन्होंने मुझे लुटा, बल्कि यह कहूंगा कि उन्होंने मुझे बेवकूफ बनाया और मैंने बेवकूफ अपनी मर्जी से बनना स्वीकार किया।
आज, सालों पहला कॉलेज में मुनाफे के बारे में पढ़ा एक सिद्धांत समझ आने लगा था। इस सिद्धांत के हिसाब से, आपके ज्ञान और सामने वाले की अज्ञानता के बीच के फर्क में ही आपका मुनाफा है।
तो, इस सिद्धांत के हिसाब से में यह कह सकता हूँ कि उन्होंने कोई धोखा नहीं किया। यह पूर्ण रूप से मेरी अज्ञानता थी और उनकी सूझ-बुझ। वास्तव में, मैंने गलत लोगों पर विश्वास किया। मैं गलत लोगों के लिए रोया। मैंने गलत लोगों के आंसू पोंछे। मैंने गलत लोगों की मदद की। बदले में, उन सब ने मेरी अज्ञानता का लाभ उठाया और अपना मुनाफा कमाया। मैंने उनके दर्द को अपना दर्द समझने की भूल की और मेरी इसी कमजोरी ने उनको मुझे लूटने का मौका दिया।
मैं ही बेवकूफ था।
वास्तव में, मैंने बचपन से यही सीखा था। आज मैं सोच रहा था कि दादा जी की सीख गलत कैसे हो सकती है? वो हमेशा कहा करते थे कि,”बेटे तेरे अंदर एक इंसान है और उसे खुद से पहले मरने मत देना।”
पर आज मुझे लगता है कि उनका यह सिद्धांत किसी काम का नहीं है। आज का युग बदल गया है। हम 21वीं सदी में हैं। यह एक ऐसी सदी है जहाँ आपका ज़िंदा रहना इस बात पर निर्भर करता है कि आप के अंदर अपने दुश्मनों को बिना कोई मौका दिए, परास्त करने की कितनी क़ाबलियत है।
यह एक ऐसा दौर है, जहाँ आपको या तो दौड़ना है या फिर पीछे रह जाना है।
“कर भला हो भला,” या ” नेकी कर कुँए में डाल,” जैसी पुरानी कहावतों की अब कोई कीमत नहीं है। आजकल हर जगह सिर्फ पैसे और हैसियत की बात है।
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यह जानते हुए भी कि कफ़न में जेब नहीं होती और साथ कुछ नहीं जाता, हमारे अंदर से इन भौतिक चीजों को इकट्ठा करने की भूख खत्म ही नहीं होती। चाहे बात हमारे रिश्तों की हो या समाज में हैसियत की, हर चीज इस बात से तय की जाती है कि हम कौन सी गाड़ी चलाते हैं, हम कौन सी जगहों पर घूमने जाते हैं, हमारे बैंक में कितने पैसे पड़े हैं और हमारे पासपोर्ट पर कितने वीज़ा लगें हैं।
मैंने अपने बुरे वक़्त में उन लोगों को मुझे से नज़र बचाते भी देखा है, जो मेरे अच्छे वक़्त में मेरा थूक तक चाटने को तैयार रहते थे।
वित्त में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद भी, मैं गलत चीजों पर निवेश कर रहा था। मैं रिश्तों में निवेश कर रहा था, जबकि मुझे भौतिक संपत्ति में निवेश करना चाहिए था। अब मुझे उन सब लोगों पर हजारों रुपये और घंटे खर्च करने का पछतावा हो रहा है, जो मेरी फूटी कौड़ी के लायक भी नहीं थे।
काश, मैंने उस समय अपने दोस्त, “मानव” की बात मानी होती। उसने मुझे भावनात्मक मूर्ख न बनकर, थोड़ा स्वार्थी होने की सलाह दी। लेकिन, मैं उस समय अपनी भावनात्मक मूर्खता की ऊंचाई पर था।
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